लीजिए पहुँच गए हम।। खट खट करते हुए कंप्यूटर पर भी, आप सबके बीच। ठीक उसी तरह जैसे टकराते भटकते छड़ी खटखटाते हुए पहुँच लेते हैं हम कहीं भी।
खट खट होगी बहुत से छोटे बड़े दरवाजों पर। वे दरवाजे जो अब तक बंद तो हैं ही लेकिल बहुत बार वक्त की धूल चढ़ जाने की वजह से अनदेखे रह जाते हैं। ये खटखट अब तक मुमकिन नहीं थी। पढ़ने की जुबान अंग्रेजी थी लेकिन हाले दिल बयाँ करने की जुबान हिन्दी। हिन्दी की टाईपिंग के लिए कोई कारगर साफ्टवेयर दृष्टिहीनों के लिए उपलब्ध नहीं था जो था भी तो स्क्रीनरीडर अच्छे नहीं थे, कोई अक्षर दर अक्षर पढ़ता था तो कोई लाइन दर लाइन, इसलिए करेक्शन नहीं लग पाती थीं, न ही दूसरों का लिखा ढंग से पढ़ा जा सकता था।
लेकिल अब खतोकिताबत का सिलसिला अपनी उस जुबान में चलता रहेगा जिसमें मैं बोलता सोचता हूँ। इस चिट्ठे में मैं बात करूंगा-
बनती बिखरती जिंदगी की – यानि अपने और अपने जैसों के रोजमर्रा के खट्टे मीठे अनुभव
मौसिकीनामा- यानि हिदुस्तानी शास्त्रीय संगीत पर कुछ अकादमिक बातचीत
अनकहा, अनसुना अनलिखा- वे मुद्दे जो अब तक अकादमिक हलकों में या तो उठे नहीं या फिर लोग उनसे बच रहे हैं।
अक्सर खत पढ़े नहीं जाते आज के जमाने में तो बिल्कुल नहीं, डिलीट बटन बहुत आसानी से उन्हें उड़ा देता है, डिलीट बटन जल्दी नहीं दबाइए जरा रुकिए, एक नजर देख लीजिए और जो मन आए कह डालिए। खुली छूट है गलियाने तक की भी।
Friday, December 21, 2007
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