Sunday, September 18, 2011

Khatkhat, a Hindi poem by me which I had written years back

खटखट

सर्र-सर्र, पों-पों-पों,ढम-ढम:-

सब नज़र आते हैं, सुनाई देते हैं सड़क पर;

लेकिन इनसब के साथ-साथ अक्सर होती है सड़क पर

खटखट खटखट, खटखट।

खटखट अक्सर सुनाई नहीं देती

और न ही इसे सुनने की ज़रूरत समझी गाई है अभी तक।

खटखट टोह सिर्फ़ रास्ते की नहीं लेती,

चोट महज़ सड़क या फु़टपाथ पे नहीं पड़ती;

यह खटखट कोशिश है उन दरवाजो को खटखटाने की

जो अब तक खोले नहीं गाए।

और इस कोशिश की गवाही इतिहास या समाजशास्त्र की कि़ताबें नहीं बल्कि खरोंचें लगी टाँगें या फूटा हुआ माथा दिया करते हैं।

ये निशान महज़ निशान नहीं हैं!

बल्कि सुबूत हैं उन कोशिशों के

जो दर्वाजो़ं को बन्द रखने केलिए लगातार कीजा रही हैं।

और बयान हैं इस बात के कि यह खटखट हो रही है

और ज्यादा, ओर तेज़।